किसी रोज़ ✍
ग़ज़ल के रूप में
ढल जाऊँ किसी रोज़
हो ऐसा की तुझे मैं
याद आऊं किसी रोज़ ।।
बनती हूँ बिगड़ती हूँ
कश्मकश में हूँ रहती
या तो सवंर जाऊँ या
बिखर ही जाऊँ किसी रोज़ ।।
गमो की धूप में रह रह
कर रूह ज़ख़्मी हुई
फिर भी दिल करता है
कि मुस्कुराऊँ किसी रोज़ ।।
मोहोब्बत ही इक वजह
नही ज़माने में दर्द की
ये रिश्ते नाते गम देते है
सबको बताऊं किसी रोज ।।
बेटी का मुक़्क़द्दर लेके आई हूँ
इस दुनिया में लेकिन
अब चाहती हूँ बेटा बन भी
दुनिया में आऊं किसी रोज़ ।।
आकाश के नीचे रखे इक
पिंजरे में हूँ कब से कैद
जी करता है खोल परो को
उड़ जाऊँ किसी रोज़ ।।
रूपम बाजपेयी "रूप"✍
कवयित्री लेखिका
जबलपुर मध्य प्रदेश
ट्वीटर - @BajpaiRoopam
No comments:
Post a Comment